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सुनो सुनाऊं आज तुम्हे , एन अनोखी सी कहानी,
जिसमे है न कोई राजा , और न कोई रानी.
वर्णित है जिसमे एक पुरुष की बातें,
सही उसने जो सब आघातें.
उसका था केवल यही एक स्वप्न,
खुश रहे तू हर पल , हर क्षण
.
रहती थी उसे यह आशा,
पूर्ण करूँगा मै तेरी अभिलाषा.
बस तेरी खातिर रहता था व्याकुल,
तेरी इच्छाएं पूर्ण करने को आकुल.
करता रहता था बस यह चिंतन,
कभी कष्ट न सहे तेरा तन -मन.
जब – जब तू सफल हुआ,
तुझसे ज्यादा वो खुश हुआ.
लेकर चलता था तेरा भार ,
सिखलाया तुझे वो जग-व्यहार.
तेरी सारी बोझें ढो-ढो कर,
असमय झुक गयी थी उसकी कमर.
चाह थी उसे तू छू ले अम्बर.
तेरी सारी पीड़ाएं वो लेता था हर.
जब-जब तुझको कष्ट हुआ था.
तुझसे ज्यादा वो रोया था.
आज तू छू रहा है अम्बर,
उसी के बलिदानों के बल पर.
सफल हुआ,तू जा रह है उड़ने को आसमान ,
भुला उसको , भुला उसका सब बलिदान.
तेरे इस नीच कर्म से उसकी आँखे भर आई,
पी गया वो सारे आंसू,एक बूंद भी न बहार आई.
फिर भी उसकी ह्रदय बोली वाणी यह कोटि-कोटि,
हुई तपस्या पूर्ण मेरी,पा गया तू सफलता की चोटी.
कर अपनी इच्छाओं का दमन,
पी तेरा सब विष-वमन,
चला गया इस नश्वर लोक से,
बिना किसी सुख के भोग के,
कौन युग पुरुष हो सकता है वो, जिसके बल पर तू यह जीवन-समर जीता,
और कोई इस तुल्य नहीं , निश्चय ही है वो तेरे पिता.
आलोक रंजन पाण्डेय
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